आह ये दौर कि जिस में लब-ओ-रुख़्सार बिके दस्त-ए-फ़ितरत के बनाए हुए शहकार बिके दिल के जज़्बात बिके ज़ेहन के अफ़्कार बिके सच तो ये है कि हर इक अहद में फ़नकार बिके अस्र-ए-हाज़िर में कोई चीज़ भी अनमोल नहीं इश्क़ की आन बिके हुस्न का पिंदार बिके इक दहकती हुई दोज़ख़ को बुझाने के लिए कितने ही फूल से पैकर सर-ए-बाज़ार बिके नफ़्स की देवी का पुर-कैफ़ इशारा पा कर साहिब-ए-होश बिके साहब-ए-किरदार बिके ख़ुद-ग़रज़ चंद निगहबानों के हाथों अक्सर फूल तो फूल हैं गुलज़ार के गुलज़ार बिके बज़्म-ए-साक़ी भी वो बाज़ार-ए-तरब है 'वाहिद' एक साग़र पे जहाँ फ़ितरत-ए-ख़ुद्दार बिके