फ़रेब-ए-राह-ए-मोहब्बत का आसरा भी नहीं मैं जा रहा हूँ मगर कोई रास्ता भी नहीं हर एक कहता है राह-ए-वफ़ा है ना-हमवार मगर ख़ुलूस से इक आदमी चला भी नहीं किसी के एक इशारे पे दो-जहाँ रक़्साँ मिरे लिए मिरी ज़ंजीर की सदा भी नहीं अजीब तुर्फ़गी-ए-शौक़ है कि सू-ए-अदम गई है ख़ल्क़ मगर कोई नक़्श-ए-पा भी नहीं ये ठीक है कि वफ़ा से नहीं लगाव उसे मगर सितम तो यही है कि बेवफ़ा भी नहीं कोई मक़ाम हो इक आसरा तो होता है वो यूँ बदल गए जैसे मिरा ख़ुदा भी नहीं