आह-ओ-नाला दर्द-ओ-ग़म शोर-ए-फ़ुग़ाँ है आज भी या'नी हर बुलबुल असीर-ए-बाग़बाँ है आज भी हाए तुम उस को समझते हो गुलिस्ताँ का हरीफ़ बिजलियों की ज़द में जिस का आशियाँ है आज भी नक़्श-ए-आज़ादी जबीनों से नुमायाँ है मगर दामन-ए-दिल पर ग़ुलामी का निशाँ है आज भी मंज़िल-ए-मक़्सूद पर पहुँचे हैं सब के क़ाफ़िले सिर्फ़ मेरी सई-ए-पैहम राएगाँ है आज भी उस के अफ़्साने पे कोई तब्सिरा बे-सूद है शादमाँ हो कर भी जो ना-शादमाँ है आज भी तू अभी अपनी हक़ीक़त से नहीं है आश्ना तेरे क़ब्ज़े में इनान-ए-दो-जहाँ है आज भी मैं अज़ल ही से समझता हूँ तुझे अपना 'अज़ीज़' ये तिरी फ़ितरत कि तू दामन-कशाँ है आज भी