आइना देखा किसी रोज़ न हैरान हुए हम तो बस आ के यहाँ सख़्त पशेमान हुए मेज़बानी का शरफ़ क़िस्मत-ए-अग़्यार में था तुम मिरे घर तो किसी रात न मेहमान हुए जब कोई बात समझने का हमें होश न था फ़ैसले हम से भी सरज़द इसी दौरान हुए दिल गया जान गई इज़्ज़त-ए-सादात गई इश्क़ में इस के सिवा और भी नुक़सान हुए मैं भी उस शख़्स का मम्नून कहाँ तक रहता काम मेरे तो कहीं और से आसान हुए