आईना-ए-रंगीन-ए-जिगर कुछ भी नहीं क्या क्या हुस्न ही सब कुछ है नज़र कुछ भी नहीं क्या चश्म-ए-ग़लत-अंदाज़ के शायाँ भी न ठहरे जज़्ब-ए-ग़म-ए-पिन्हाँ में असर कुछ भी नहीं क्या नज़रें हैं किसी की कि है इक आतिश-ए-सय्याल यूँ आग लगाने में ख़तर कुछ भी नहीं क्या अदना सा इशारा भी है जिस का मुझे इक हुक्म उस पर मिरी आहों का असर कुछ भी नहीं क्या माना मिरे जलने से न आँच आएगी तुम पर लेकिन मिरे जलने में ज़रर कुछ भी नहीं क्या यूँ भी कोई दुनिया की निगाहों से न गिर जाए 'मुल्ला' को बुरा कहने में डर कुछ भी नहीं क्या