आज अपनी शाम-ए-तन्हाई का है मंज़र जुदा जोश-ए-दर्द-ए-दिल जुदा है जोश-ए-चश्म-ए-तर जुदा आ गया है दामन-ए-क़ातिल जो अपने हाथ में सब का इक महशर जुदा है अपना इक महशर जुदा कर दिया ये क्या फ़ुसूँ साक़ी की चश्म-ए-मस्त ने अब जो होता ही नहीं लब से मिरे साग़र जुदा मयकशान-ए-चश्म-ए-मस्त-ए-नाज़ साक़ी के लिए कैफ़-ए-हर सहबा जुदा है ज़ौक़-ए-हर साग़र जुदा