आज बज़्म-ए-नाज़ में वो इंतिशार-ए-नग़्मा है साज़-ए-दिल की हर सदा ना-साज़गार-ए-नग़्मा है मेरे साज़-ए-ग़म से दुनिया ही नहीं है मुज़्तरिब वुसअत-ए-कौन-ओ-मकाँ भी सोगवार-ए-नग़्मा है दस्त-ए-रंगीं में किसी के आ गया फिर साज़-ए-दिल मेरा हर तार-ए-नफ़स फिर बे-क़रार-ए-नग़्मा है उस को आएगी नज़र क्या ख़ाक तस्वीर-ए-अलम जिस के दिल का आइना पुर-अज़ ग़ुबार-ए-नग़्मा है जब से शामिल हो गई है नग़्मगी-ए-साज़-ए-दिल मेरा नाला ग़ैरत-ए-कैफ़-ए-बहार-ए-नग़्मा है काश होता 'मुस्लिम'-ए-रंगीं नवा-ए-शौक़ भी आज का माहौल कितना साज़गार-ए-नग़्मा है