आज बे-चेहरा हैं चेहरों के समुंदर कितने आइने ढूँडते फिरते हैं सिकंदर कितने मैं ने बच्चों के नमूने के जो बनवाए थे बह गए वक़्त के सैलाब में वो घर कितने एक आँसू भी नहीं एक तबस्सुम भी नहीं मिट गए हर्फ़-ए-ग़लत बन के मुक़द्दर कितने हम ने अपना ही मकाँ आज खुला छोड़ दिया फेंक सकता है कहीं से कोई पत्थर कितने गर्म-बाज़ारी सलीबों से बढ़ी है आगे रात दिन करते हैं सौदागरी ख़ंजर कितने तिश्नगी डसती रही तिश्ना-लबी को लेकिन शीश-महलों में छलकते रहे साग़र कितने हो गया लफ़्ज-ए-वफ़ा बंद किताबों में 'रज़ा' सर्द-मेहरी के हर इक सम्त हैं दफ़्तर कितने