आज भी जिस की ख़ुश्बू से है मतवाली मतवाली रात वो तिरे जलते पहलू में थी जान निकालने वाली रात सुब्ह से तन्हा तन्हा फिरना फिर आएगी सवाली रात और तिरे पास धरा ही क्या है ऐ मिरी ख़ाली ख़ाली रात दिल पर बर्फ़ की सिल रख देना नागन बन कर डस लेना अपने लिए दोनों ही बराबर काली हो कि उजाली रात पीले पत्ते सूखी शाख़ों पर भी तो अक्सर चमका चाँद मुझ से मिलने कभी न आई तेरी नाज़ की पाली रात देख लिए आँखों ने मेरी ताज़ा शबनम बासी फूल गरचे सुब्ह को मेरी ख़ातिर तुम ने मुझ से छुपा ली रात तुम इस को सोना कहते हो तुम क्या हम भी कहते हैं अपनी थकी पलकों पर हम ने लम्हा भर जो सँभाली रात आने वाली आ नहीं चुकती जाने वाली जा भी चुकी वैसे तो हर जाने वाली रात थी आने वाली रात