ख़ुद पर नहीं तुयूर की अब दस्तरस कि बस मस्ती में जा रहे हैं यूँ सू-ए-क़फ़स कि बस ख़्वाहिश कहाँ उरूज से उतरी है ज़ेर-ए-ख़ाक मज़बूत दूर से उसे इस तरह कस कि बस महका हुआ वजूद है रौशन है मेरी ख़ाक ऐसे रवाँ है फिर तेरी बू-ए-नफ़स कि बस हर दम तिरे ख़याल ने नीला किया बदन सब ज़हर खींच ले मिरा इस तरह डस कि बस मक्तूब में लिखा है मुझे अब शिफ़ा मिले बीमार को अता हो कभी एक मस कि बस आँखें लहू-लुहान थीं चेहरे भी थे मलाल इस तरह दीदनी था वो सोला-बरस कि बस इक उम्र की थकान से है जिस्म शल 'निसार' मंज़ूर अब नहीं मुझे भाँग-ओ-जरस कि बस