आज भी तिश्नगी की क़िस्मत में सम-ए-क़ातिल है सलसबील नहीं सब ख़ुदा के वकील हैं लेकिन आदमी का कोई वकील नहीं है कुशादा अज़ल से रू-ए-ज़मीं हरम-ओ-दैर बे-फ़सील नहीं ज़िंदगी अपने रोग से है तबाह और दरमाँ की कुछ सबील नहीं तुम बहुत जाज़िब-ओ-जमील सही ज़िंदगी जाज़िब-ओ-जमील नहीं न करो बहस हार जाओगी हुस्न इतनी बड़ी दलील नहीं