आज एक मरने वाला कहता था बेकली में हसरत मिरी न निकली थोड़ी सी ज़िंदगी में तकलीफ़ भी इसी में आराम भी इसी में दोनों को हम ने देखा दो दिन की ज़िंदगी में क़ुदरत ये कह रही है कुछ कर ले ज़िंदगी में फ़ितरत शनास हो कर खोया है तू ख़ुशी में गुज़रा बड़े मज़े से इफ़्लास का ज़माना पीता था ख़ून दिल का मैं दौर-ए-मुफ़्लिसी में गुलशन जो हो गया है नज़्र-ए-ख़िज़ाँ हमारा पिन्हाँ था राज़-ए-हस्ती शायद कली कली में मुतरिब-नवाज़ फ़ितरत कहती है अहल-ए-दिल से तार-ए-नफ़स को छेड़ो नग़्मा है बस इसी में साक़ी को भूल जाऊँ मुतरिब को भूल जाऊँ कुछ और भी इज़ाफ़ा हो मेरी बे-ख़ुदी में बाग़-ए-जहाँ से क्यूँकर अहल-ए-जहाँ न ख़ुश हों हर गुल में रंग तेरा बू तेरी हर कली में चर्ख़-ए-बरीं पे फ़ौरन पी कर मिरा पहुँचना सैर-ए-फ़लक-नुमा थी हर जाम-ए-सरमदी में आवाज़-ए-नै को सुन कर बे-ख़ुद हुआ 'वफ़ा' भी भर दी सदा-ए-दिलकश ये किस ने बाँसुरी में