आज क़िस्मत का बुलंदी पे सितारा कर दे जिस को हम चाहें उसी को तू हमारा कर दे जो गवारा भी न हो उस को गवारा कर दे उस का हर ज़ुल्म-ओ-सितम जान से प्यारा कर दे चश्म-ए-रहमत से अगर तू जो इशारा कर दे ख़ाक के ज़र्रे को पुर-नूर सितारा कर दे मुस्कुरा कर ऐ मिरी जाँ तू उठा ले पतवार मौज-ए-दरिया को मिरे हक़ में किनारा कर दे तीलियाँ कुंज-ए-क़फ़स की जो जला देती हैं मेरी आहों को इलाही वो शरारा कर दे जिस ने आफ़ाक़ में मुम्ताज़ किया था मुझ को मेरे मालिक वो करम मुझ पे दोबारा कर दे ज़ुल्म की बस्ती को 'शातिर' जो बहा ले जाए अपनी हस्ती को वो तूफ़ान का धारा कर दे