इस बज़्म में मेरा कोई दम-साज़ नहीं है शाहीं हूँ मगर ताक़त-ए-परवाज़ नहीं है ऐ ज़ौक़-ए-तलब मुझ को तिरी दाद का शिकवा माना कि अभी तू मिरा हमराज़ नहीं है तकमील-तलब है अभी उल्फ़त का फ़साना शोख़ी नहीं वहशत नहीं अंदाज़ नहीं है जन्नत से चली आए अगर हूर तो बे-कार वो नाज़ नहीं उस में वो अंदाज़ नहीं है हंगामा-ए-हस्ती में हूँ 'अरमान' मैं मजबूर ये तेरी सदा है मिरी आवाज़ नहीं है