आज कल भेस में लीडर के है शैताँ समझा मगर इस भेद को हिन्दू न मुसलमाँ समझा पैरहन जिस्म के हम-रंग था उस के इतना कोई मल्बूस उसे समझा कोई उर्यां समझा गर यही क़द्र-ए-सुख़न है तो सुख़न पर ला'नत एक क़व्वाल को तू शाइ'र-ए-दौराँ समझा बन के मेहमाँ जो गया हो गया जूता ग़ाएब मेज़बानी के न इस राज़ को मेहमाँ समझा जब ही उस शोख़ ने पूछा कि तख़ल्लुस क्या है देख कर शक्ल मिरी मुझ को ग़ज़ल-ख़्वाँ समझा बाप था उस का खड़ा दर पे मगर ख़ैर हुई या'नी वो मुझ को गदा मैं उसे दरबाँ समझा उस के आँचल में घुसा था कोई जुगनू 'हाशिम' और मैं उस को चराग़-ए-तह-ए-दामाँ समझा