निगाहें झुक गईं आया शबाब आहिस्ता आहिस्ता पड़ा आँखों प पलकों का हिजाब आहिस्ता आहिस्ता सवाली बन के जब मुश्ताक़ नज़रें पड़ गईं उन पर निगाहों ने दिया उन की जवाब आहिस्ता आहिस्ता कभी अश्कों के तूफ़ाँ में कभी मिज़्गाँ से दामाँ में लहू का दिल बहा यूँ बे-हिसाब आहिस्ता आहिस्ता इसी उम्मीद पर तो जी रहे हैं हिज्र के मारे कभी तो रुख़ से उट्ठेगी नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता ख़यालों से रुख़-ए-ज़ेबा जो अक्सर देख लेता है मिटा जाता है वो भी कैफ़-ए-ख़्वाब आहिस्ता आहिस्ता रुख़-ए-ज़ेबा पे लहरें लेती हैं कुछ इस तरह ज़ुल्फ़ें कि जैसे चाँद पर छाए सहाब आहिस्ता आहिस्ता मता-ए-ज़िंदगी समझा था सोज़-ए-ग़म को मैं 'हाशिम' मिटा जाना है वो भी इज़्तिराब आहिस्ता आहिस्ता