आज-कल उश्शाक़ का दीवाला निकला जाए है हुस्न की फ़रमाइशों का टैक्स बढ़ता जाए है एक आशिक़ ग़म का है इक शादमानी पर निसार कोई उत्तर कोई दक्खिन जिस को जो भा जाए है बुल-हवस तो नारसा-ए-औज-ए-बाम-ए-इश्क़ है जिस जगह काना न पहुँचे वाँ पे अंधा जाए है इन्फ्लुएँजा में हैं उश्शाक़ अक्सर मुब्तला कूचा-ए-जानाँ मुकम्मल वॉर्ड बनता जाए है दोस्तो तुम को सुतूँ बनना है उर्दू के लिए वर्ना बारिश से तअ'स्सुब की ये घर ढह जाए है सिर्फ़ स्कीमों पे मंसूबे का है दार-ओ-मदार मशवरे होते हैं जैसे ख़्वाब देखा जाए है हर ज़मीन-ए-शेर में ग़ल्ला उगाओ की मुहिम फ़िक्र के हल से यहाँ अवसर को जोता जाए है