आज कुछ अंदेशा-ए-सरसर नहीं अब कोई हम में शिकस्ता-पर नहीं सामने शीशे तो हैं लाखों मगर आज अपने हाथ में पत्थर नहीं फूल ज़ख़्मों के खिले हैं जा-ब-जा ये तो मेरे शहर का मंज़र नहीं जल रहे हैं हम तो अपनी आग में आतिशीं तेरा हसीं पैकर नहीं रौशनी की भीक माँगूँ ग़ैर से इतना भी तारीक मेरा घर नहीं हो गए 'बेताब' अब हम सरफ़राज़ अब किसी चौखट पे अपना सर नहीं