आज मैं हूँ शाम है साक़ी है दौर-ए-जाम है पाँव की ठोकर पे अपनी गर्दिश-ए-अय्याम है बाग़ में तितली है गुल है हुस्न-ए-लाला-फ़ाम है चाँदनी है रक़्स में रंगीनियों की शाम है बे-हिसी कहिए इसे या ख़ूगर-ए-ग़म जानिए अपनी नाकामी पे भी ख़ुश ये दिल-ए-नाकाम है हम को इन से है तवक़्क़ो वो सरापा हैं गुरेज़ हैं वफ़ा ना-आश्ना हम पर यही इल्ज़ाम है कौन रुख़्सत हो गया देवी ग़ज़ल की रो रही शहर में शेर-ओ-सुख़न के इक मचा कोहराम है इक ज़रा सा दिल है और दुनिया जहाँ की आफ़तें सैंकड़ों ग़म के चराग़ों से सजा ये बाम है मेरी 'फ़रहत' शाइरी इस बे-सुख़न की देन है शाइरी क्या ज़िंदगानी भी उसी के नाम है