आज मुझे कुछ लोग मिले हैं पागल से शहर में वहशी दर आए क्या जंगल से सारे मसाइल ला-यनहल से लगते हैं निकलूँ कैसे सोच की गहरी दलदल से बर्फ़-नुमा सी तारों की चंचल किरनें छन कर निकलें रात के काले आँचल से ज़ेहन से यूँ है फ़िक्र-ओ-नज़र का अब रिश्ता पनघट को इक रब्त हो जैसे छागल से याद की ख़ुशबू दिल के नगर में फैलेगी ग़म के साए लगते हैं अब शीतल से जिस्म-ओ-जाँ पर सन्नाटों का पहरा हो बाज़ आया मैं अब दुनिया की हलचल से तन्हाई का ज़हर भला क्या फैलेगा छाए हो तुम एहसास पे मेरे बादल से