आज रुस्वा हैं तो हम कूचा-ओ-बाज़ार बहुत या कभी गीत भी गाते थे सर-ए-दार बहुत अपने हालात को सुलझाओ तो कुछ बात बने मिल भी जाएँगे कभी गेसू-ए-ख़मदार बहुत दिल के ज़ख़्मों को भी मुमकिन हो तो देखो वर्ना चाँद से चेहरे बहुत फूल से रुख़्सार बहुत आज माहौल में फ़ित्ने हैं सर-ए-दैर-ओ-हरम आज बेहतर है परस्तिश को दर-ए-यार बहुत लुट गए एक ही अंगड़ाई में ऐसा भी हुआ उम्र-भर फिरते रहे बन के जो होशियार बहुत अजनबी बन के रहे शहर में हम हालाँकि साया-ए-ज़ुल्फ़ बहुत साया-ए-दीवार बहुत 'क़ैस' ना-क़द्री-ए-अहबाब का शिकवा है फ़ुज़ूल कोई यूसुफ़ ही नहीं वर्ना ख़रीदार बहुत