आज सुन ली है मिरे अहबाब ने मेरी ग़ज़ल आज अपनी मंज़िल-ए-मक़्सूद पर पहुँची ग़ज़ल जब सुनाई आप ने तो बा-अदब सुन ली ग़ज़ल और जब कोशाँ हुआ तो बे-धड़क कह दी ग़ज़ल ये लब-ओ-रुख़्सार ये चेहरा तेरा पुर-नूर सा तुझ को क्या देखा लगा जैसे कोई देखी ग़ज़ल कल जो देखी थी ग़ज़ल तो दिल की धड़कन रुक गई आज जो देखी ग़ज़ल तो बन के दिल धड़की ग़ज़ल ज़ुल्फ़ ऊला चश्म सानी क़ाफ़िया रुख़ लब रदीफ़ रब ने तुम को है तराशा या कोई लिक्खी ग़ज़ल क़ाफ़िया रूठा हुआ था मुँह चिढ़ाती थी रदीफ़ तुम क्या रूठे रात भर थी रात भर रूठी ग़ज़ल तहत में जब भी पढ़ी तो बन के निकली इंक़लाब जब तरन्नुम में पढ़ी तो झूम उठी मेरी ग़ज़ल हैं ये अस्नाफ़-ए-अदब जान-ए-सुख़न-दाँ शाइरी नज़्म मेरी साँस है और ज़िंदगी मेरी ग़ज़ल कह उठे हैं सब सुख़नवर अहल-ए-महफ़िल ये 'शहाब' जो तेरे लब से हुई आख़िर वही ठहरी ग़ज़ल