आज यूँ हस्ती-ए-इमकान-ओ-गुमाँ से निकले डूब कर जैसे मकाँ सैल-ए-रवाँ से निकले रतजगे बोलने लगते हैं मिरी आँखों में रू-ब-रू हर्फ़ न जब कोई ज़बाँ से निकले शाख़-ए-हस्ती से न उड़ जाए कहीं ताइर-ए-जाँ जब तलक तीर किसी शोख़ कमाँ से निकले सब गुलाब अपने ही लगते हैं चमन में लेकिन कोई तो अपना सफ़-ए-लाला-रुख़ाँ से निकले ख़ाना-ए-दिल में उतारा तो है सूरज 'फ़ाख़िर' कौन रोकेगा अगर धूप मकाँ से निकले