चारागरों ने बाँध दिया मुझ को बख़्त से छाँव मिली न मुझ को दुआ के दरख़्त से बैठा था मैं हिसार-ए-फ़लक में ज़मीन पर दुश्मन ने फ़तह खींच ली मेरी शिकस्त से मैं भी तो था फ़रेफ़्ता ख़ुद अपने-आप पर शिकवा करूँ मैं क्या दिल-ए-नर्गिस-परस्त से गिर्या की सल्तनत मुझे देगी शिकस्त क्या छीनी है मैं ने ज़िंदगी पानी के तख़्त से हर्फ़-ए-दुआ पे गोश-बर-आवाज़ हो वो क्यूँ दिल से कलाम होता है मस्तों के मस्त से हम्द-ओ-सना सुख़न का नहीं दिल का है रियाज़ कैसे सना करूँ मैं दिल-ए-लख़्त-लख़्त से अहल-ए-ख़िरद इसे न समझ पाएँगे 'फ़क़ीह' कुछ मसअले हैं मावरा फ़तह ओ शिकस्त से