आज यूँ दिल में तिरी याद हुई है बेदार जैसे मासूम से चेहरे पे तबस्सुम की फुवार ता-कुजा ज़ुल्फ़-ओ-लब-ओ-रुख़ की ये कोमल झंकार सुन सको गर तो सुनो वक़्त के ज़ख़्मों की पुकार जुम्बिश-ए-लब की सज़ा आज भी इस दुनिया में तौक़-ओ-ज़ंजीर कहीं है तो कहीं मंज़िल-ए-दार जिस तरफ़ देखिए जल्वे हैं तिरी क़ुदरत के हर तरफ़ देखिए रिसते हुए ज़ख़्मों की बहार आज जो धज है तिरे कूचे की पहले तो न थी यूँ तो गुज़रे हैं इन्ही रस्तों से हम सैकड़ों बार पुर्सिश-ए-ग़म ही बहुत है कि ज़माने में 'अयाज़' किस को फ़ुर्सत जो करे बैठ के ज़ख़्मों का शुमार