आज़ुर्दगी का उस की ज़रा मुझ को पास था मैं वर्ना आज उस से ज़्यादा उदास था सूरज नहीं था दूर सवा नेज़े से मगर मेरी अना का साया मिरे आस पास था अब आ के सो गया है समुंदर की गोद में दरिया में वर्ना शोर ही उस की असास था रूहें उठीं गले मिलीं वापस चली गईं इस राज़ के छुपाने को तन पर लिबास था पढ़ कर जिसे उभरने लगें अन-गिनत सवाल ऐसे ही इक फ़साने का वो इक़्तिबास था अब आ के बर्फ़ पिघली है कुछ ए'तिक़ाद की जिस को यक़ीं समझते रहे हम क़यास था