आँख दिखलाने लगा है वो फ़ुसूँ-साज़ मुझे कहीं अब ख़ाक न छनवाए ये अंदाज़ मुझे कैसे हैराँ थे तुम आईने में जब आँख लड़ी आज तक याद है इस इश्क़ का आग़ाज़ मुझे सामने आ नहीं सकते कि हिजाब आता है पर्दा-ए-दिल से सुनाते हैं वो आवाज़ मुझे तीलियाँ तोड़ के निकले सब असीरान-ए-क़फ़स मगर अब तक न मिली रुख़्सत-ए-परवाज़ मुझे पर कतर दे अरे सय्याद छुरी फेरना क्या मार डालेगी यूँही हसरत-ए-परवाज़ मुझे ज़ेर-ए-दीवार-ए-सनम क़ब्र में सोता हूँ फ़लक क्यूँ न हो ताला-ए-बेदार पर अब नाज़ मुझे बे-धड़क आए न ज़िंदाँ में नसीम-ए-वहशत मस्त कर देती है ज़ंजीर की आवाज़ मुझे पर्दा-ए-हिज्र वही हस्ती-ए-मौहूम थी 'यास' सच है पहले नहीं मालूम था ये राज़ मुझे