आँख को हुस्न का शाहकार दिखाने से रही शाइ'री उन के ख़द-ओ-ख़ाल बनाने से रही ये सभी दश्त मिरा जोश-ए-जुनूँ जानते हैं ये हवा मेरी तरह ख़ाक उड़ाने से रही तेरी बाँहें न सही वुसअ'त-ए-सहरा ही सही मेरी मिट्टी तो किसी तौर ठिकाने से रही हम ने भी चेहरा बदलने का हुनर सीख लिया दोस्ती अपनी भी कुछ रोज़ ज़माने से रही खाए जाता है शब-ओ-रोज़ तिरे हिज्र का ग़म मेरी तन्हाई मिरी उम्र बढ़ाने से रही अब किसी और के दर पे है यक़ीनन 'अख़्तर' ज़िंदगी मुझ से तो अब आँख मिलाने से रही