अपनी माँ की दुआएँ पाता हूँ इस लिए ही तो मुस्कुराता हूँ प्यार की भूक जब सताती है दोस्तों से फ़रेब खाता हूँ ये भी मेरे लिए इबादत है रास्तों में दिए जलाता हूँ लोग फ़रहाद मुझ को कहते हैं घर में जब जू-ए-शीर लाता हूँ मुझ को पत्थर हबीब लगता है जब उसे हाल-ए-दिल सुनाता हूँ उस से मैं कुछ भी ले नहीं सकता जब वो कहता है ले मैं दाता हूँ मेरे ग़म मेरे बच्चों जैसे हैं मैं जिन्हें गोद में खिलाता हूँ वो ही जड़वाता है अँगूठी में जिस किसी को मैं रास आता हूँ लोग समझे कि अश्क बहते हैं मैं तो आँखों से गीत गाता हूँ दूसरे से नहीं ग़रज़ मुझ को मैं तो बस अपने मन को भाता हूँ मेरी आँखें हैं मेरी शागिर्दा शर्म करना जिन्हें सिखाता हूँ लुत्फ़-ए-पर्वाज़ लेने की ख़ातिर मन के 'पंछी' को ख़ुद उड़ाता हूँ