आँख को नमनाक कर जाता है अक्सर इन दिनों आप से मिल कर बिछड़ जाने का मंज़र इन दिनों हम असीर-ए-ज़ुल्फ़-ए-जानाँ हिज्र के मारे सही रौशनी करते हैं अक्सर दिल जला कर इन दिनों सास के ता'नों से जल कर मर गई कोई बहू तज़्किरा मुफ़्लिस की बेटी का है घर-घर इन दिनों कुछ तुम्हारी बेवफ़ाई से भी दिल घायल हुआ कुछ तो अपना भी है बरगश्ता मुक़द्दर इन दिनों काँच के महलों में वो रहते तो हैं 'नय्यर' मगर अपने हाथों में लिए फिरते हैं पत्थर इन दिनों