आँख उस पुर-जफ़ा से लड़ती है जान कुश्ती क़ज़ा से लड़ती है शोला भड़के न क्यूँ कि महफ़िल में शम्अ तुझ बिन हवा से लड़ती है क़िस्मत उस बुत से जा लड़ी अपनी देखो अहमक़ ख़ुदा से लड़ती है शोर-ए-क़ुलक़ुल ये क्यूँ है दुख़्तर-ए-रज़ क्या किसी पारसा से लड़ती है नहीं मिज़्गाँ की दो सफ़ें गोया इक बला इक बला से लड़ती है निगह-ए-नाज़ उस की आशिक़ से छूट किस किस अदा से लड़ती है तेरे बीमार के सर-ए-बालीं मौत क्या क्या शिफ़ा से लड़ती है ज़ाल-ए-दुनिया ने सुल्ह की किस दिन ये लड़ाका सदा से लड़ती है वाह क्या क्या तबीअत अपनी भी इश्क़ में इब्तिदा से लड़ती है देख उस चश्म-ए-मस्त की शोख़ी जब किसी पारसा से लड़ती है तेरी शमशीर-ए-ख़ूँ के छींटों से छींटे आब-ए-बक़ा से लड़ती है सच है अल-हर्ब ख़ुदअतुन ऐ 'ज़ौक़' निगह उस की दग़ा से लड़ती है