आँख उठा कर तुझे देखा न पुकारा मैं ने हिज्र की तरह तिरा वस्ल गुज़ारा मैं ने क्या फ़क़त मेरी अदब से ही परख होगी यहाँ वो जो इक इश्क़ तिरे इश्क़ में हारा मैं ने तू ने जो क़र्ज़ की सूरत में जुदाई दी थी नस्ल-दर-नस्ल वही क़र्ज़ उतारा मैं ने एक मानूस सी आवाज़ ने थामा मुझ को ख़ुद को इक बार मोहब्बत से पुकारा मैं ने क्या करूँ कोई नज़र आता नहीं तेरे सिवा क्या बताऊँ कि किया कैसा नज़ारा मैं ने