सरा-ए-दहर का जलता मकान छोड़ गया मगर वो शख़्स कि अपना निशान छोड़ गया सुकून के वो सभी पल तो ले गया है मगर मिरे वजूद में अपनी थकान छोड़ गया भँवर के बीच मिरे नाख़ुदा को क्या सूझी कि नाव छोड़ गया बादबान छोड़ गया क़फ़स में था तो परिंदा चहकता रहता था मगर फ़लक पे वो अपनी उड़ान छोड़ गया किसी भी शख़्स के जाने का क्या गिला करता बला की धूप में जब साएबान छोड़ गया