आँख उठाई नहीं वो सामने सौ बार हुए हिज्र में ऐसे फ़रामुश-गर-ए-दीदार हुए कामिल उस फ़िरक़ा-ए-ज़ुहहाद में उठा न कोई कुछ हुए तो यही रिन्दान-ए-क़दह ख़्वार हुए न उठी बैठ के ख़ाक अपनी तिरे कूचे में हम न याँ दोश-ए-हवा के भी कभी यार हुए सुब्ह ले आइना उस बुत को दिखाया हम ने रात अग़्यार से मिलने के जो इंकार हुए कुछ तअ'ज्जुब नहीं गर अब के फ़लक टूट पड़े आज नाले जो कोई और भी दो-चार हुए मिस्र में आज तुझे देख के पछताए हैं सादा-लौही से जो यूसुफ़ के ख़रीदार हुए मुब्तज़िल मैं ही तो हूँ आप जो कहिए सच है रात झगड़े तो मुझी पर सर-ए-बाज़ार हुए ये हैं 'आज़ुर्दा' जो कहते हुए शैअन-अल्लाह आज दरयूज़ा-गर-ए-ख़ाना-ए-ख़ुम्मार हुए