इश्क़ में इक आसानी है सब चीज़ें कम-कम काफ़ी हैं हम को भी अब वस्ल-ओ-हिज्र के दो ही मौसम काफ़ी हैं जा तू उस का हो जा जानाँ उस को इश्क़ ज़रूरी है अपने लिए तो तेरी यादें ग़ज़लें और रम काफ़ी हैं कौन हैं ये जो बैन करे हैं उन से कहिए घर जाएँ एक जनाज़े में इक इंसाँ और उस के ग़म काफ़ी हैं होंट हुए हैं जूठे अपने दिल भी थोड़ा ग़ाएब है तुम को मिलेंगे जानाँ आधे पौने ही हम काफ़ी हैं तुम क्या इश्क़ करोगी 'मुदिता' ये सर-दर्दी रहने दो तुम को परेशाँ करने को तो ज़ुल्फ़ों के ख़म काफ़ी हैं