आँखें भी माँद थीं मिरा दिल भी फ़िगार था हाए वो शख़्स जिस का मुझे इंतिज़ार था मंसूब उम्र-ए-रफ़्ता ये ए'ज़ाज़ कम नहीं इक शख़्स मुंतहा-ए-ग़म-ए-ए'तिबार था जब ग़ैर के लिए न रहा तेरा लम्स-ए-ग़ैर फिर तेरा इंतिज़ार भी आँखों पे बार था तारीकियाँ नसीब थीं इस्यान-ए-ज़ीस्त को रौशन जो था वो मेरी वफ़ा का हिसार था पहले-पहल जो रब्त था जन्नत सा अपने बीच फिर ये खुला वो इश्क़ न था कार-ज़ार था फिर यूँ हुआ कि उस ने भुला ही दिया मुझे करता भी क्या गिला मैं उसे इख़्तियार था 'आफ़ाक़' वो जुदा भी हुआ था तो ज़ो'म से फिर उस को याद करना भी इक शाहकार था