आँखें हैं सुर्ख़ होंट सियह रंग ज़र्द है हर शख़्स जैसे मेरे क़बीले का फ़र्द है जब मैं न था तो मेरी ज़माने में गूँज थी अब मैं हूँ और सारे ज़माने का दर्द है सूरज में आज जितनी तपिश है कभी न थी क्या कीजिए कि ख़ूँ ही रग ओ पय में सर्द है हम किस सफ़र पे निकले कि शक्लें बदल गईं चेहरे पे जिस के देखो मसाफ़त की गर्द है चलता रहे जो आबला-पाई के बावजूद मंज़िल का मुस्तहिक़ वही सहरा-नवर्द है ऐसा न हो सहर मेरी बीनाई छीन ले बेदारियों से अब मिरी आँखों में दर्द है बिखरा हुआ हूँ ख़्वाहिश-ओ-हसरत के दरमियाँ जैसे मिरा वजूद अभी फ़र्द फ़र्द है