आख़िर हम ने तौर पुराना छोड़ दिया उस की गली में आना-जाना छोड़ दिया मंज़र भी सब बाँझ रुतों में डूब गए आँखों पर भी पहरा बिठाना छोड़ दिया ख़त्म हुई शोरीदा-सरी लब सिल से गए महफ़िल महफ़िल हँसना-हँसाना छोड़ दिया नज़रों पर खिड़की के पट दीवार किए दरवाज़ों में उस का सजाना छोड़ दिया जब से हुआ एहसास दिया होने का हमें तेज़ हवा के सामने जाना छोड़ दिया डर था कहीं कुछ अपने लिए भी माँग न लें हम ने दुआ को हाथ उठाना छोड़ दिया 'अर्श' हुआ इक लफ़्ज़ जो मिन्हा यादों से हम ने घर को क़ुफ़्ल लगाना छोड़ दिया