आँखों में कहीं उस के भी तूफ़ाँ तो नहीं था वो मुझ से जुदा हो के पशेमाँ तो नहीं था क्यूँ मुझ से न की उस ने सर-ए-बज़्म कोई बात मैं संग-ए-मलामत से गुरेज़ाँ तो नहीं था हाँ हर्फ़-ए-तसल्ली के लिए था मैं परेशाँ पहलू में मिरे दिल था कुहिस्ताँ तो नहीं था क्यूँ रास्ता देखा किया उस का मैं सर-ए-शाम बे-दर्द का मुझ से कोई पैमाँ तो नहीं था जल्वा था तिरा आग में हर लहज़ा हुवैदा वर्ना मुझे जल मरने का अरमाँ तो नहीं था था दिल भी कभी शहर-ए-तमन्ना से मुमासिल ये क़र्या हमेशा से बयाबाँ तो नहीं था तूफ़ान-ए-आलम क्यूँ मुझे साहिल पे उतारा मैं शोर-ए-तलातुम से हिरासाँ तो नहीं था रक्खा था छुपा कर जिसे अल्फ़ाज़ में मैं ने पर्दे में सुख़न के भी वो उर्यां तो नहीं था कहते हैं कि है 'अर्श' निगूँ पाए नबी पर ऐसा वो कोई साहब-ए-ईमाँ तो नहीं था