आख़िरश आराइशों की ज़िंदगी चुभने लगी ऊब सी होने लगी मुझ को ख़ुशी चुभने लगी मैं न कहता था कि थोड़ी सी हवस बाक़ी रखो देख लो अब इस तरह आसूदगी चुभने लगी ख़्वाब का सैलाब क्या गुज़रा निगाहों से मिरी रेत पलकों से जो चिपकी नींद भी चुभने लगी तीरगी का दश्त नापा रौशनी के वास्ते रौशनी फैली तो मुझ को रौशनी चुभने लगी सख़्त एक लम्हे की रौ में आ के तौबा कर गए हल्क़ में मेरे मगर अब तिश्नगी चुभने लगी इक पशेमानी सी थी मुझ को मिरी आवाज़ से और जब मैं चुप हुआ तो ख़ामुशी चुभने लगी ये भी क्या है भेद मेरा खोल दो तुम बारहा यार 'सौरभ' अब तो तेरी मुख़बिरी चुभने लगी