आँखों के बंद बाब लिए भागते रहे बढ़ते हुए इ'ताब लिए भागते रहे सोने से जागने का तअल्लुक़ न था कोई सड़कों पे अपने ख़्वाब लिए भागते रहे फ़ुर्सत नहीं थी इतनी कि पैरों से बाँधते हम हाथ में रिकाब लिए भागते रहे तेज़ी से बीतते हुए लम्हों के साथ साथ जीने का इक अज़ाब लिए भागते रहे कुछ ज़िंदगी की वज्ह समझ में न आ सकी सोचों का इक निसाब लिए भागते रहे