दूर और पास के सताए हैं हम ने हिजरत के दुख उठाए हैं जाने किस पार जा के उतरेंगे ख़्वाब के जो भी दर बनाए हैं अपनी मिट्टी से दूर हो कर ही हिज्र के दुख समझ में आए हैं उन के आने से गुल्सितानों ने ख़ुश्बूओं के कँवल खिलाए हैं मंज़िलों को पता नहीं हम ने रास्तों के फ़रेब खाए हैं किसी पहलू क़रार आया नहीं दिल ने क़िस्से बहुत सुनाए हैं हम को 'आशिक़' ख़बर नहीं उस की तीर अपनों ने कब चलाए हैं