आँखों में एक दश्त है कब से रुका हुआ पहलू में इक चराग़ है आधा जला हुआ मुद्दत से मेरे दिल में है कोई बसा हुआ महरम है मेरी ज़ात का गरचे छुपा हुआ रखा हुआ है चाँद की दहलीज़ पर क़दम रस्ता है रौशनी का समुंदर बना हुआ पहली नज़र में उम्र का सौदा हुआ था तय सच बात है कि आँख का वा'दा वफ़ा हुआ ख़ुशबू का राज़ खोल रहा है जहान पर शे'रों में कोई शख़्स है शायद छुपा हुआ दश्त-ए-फ़ना में ढूँड लिया अपनी ज़ात को मेरा कहीं न होना ही मेरी बक़ा हुआ तितली चमन में आज बहुत चुप लगी मुझे जैसे किसी गुलाब पे हो दिल रुका हुआ कहने लगी हूँ शेर मैं 'नीलम' के साथ साथ शौक़-ए-नवा-ए-दश्त मिरा हम-नवा हुआ