अब्र छाएगा कभी धूप बिखर जाएगी ज़िंदगी है तो बहर-हाल गुज़र जाएगी हम जो हर काम के अंजाम पे डालेंगे नज़र रूह ग़ुंचों के तबस्सुम से भी डर जाएगी फ़िक्र की शम्अ करोगे जो शब-ए-ग़म रौशन रौशनी तह में अँधेरे के उतर जाएगी ज़िंदगी दहर में सोने की तरह है अपनी आतिश-ए-ग़म में तपेगी तो निखर जाएगी हम जिधर होंगे उधर आँख उठेगी किस की वो जिधर होंगे उधर सब की नज़र जाएगी तुम मोहब्बत ही न दोगे तो मोहब्बत कैसी घर में वो चीज़ ही निकलेगी जो घर जाएगी अब के गहरा है बहुत रंग-ए-बहाराँ 'नज़मी' अब के वहशत मिरी ले कर मिरा सर जाएगी