आँखों में जो हमारी ये जालों के दाग़ हैं ये तो हमारे अपने ख़यालों के दाग़ हैं मेरी हथेलियों पे जो मेहंदी से रच गए ये आँसुओं में भीगे रुमालों के दाग़ हैं बाहर निकल के जिस्म से जाऊँ तो किस तरह साँकल कहीं कहीं पे ये तालों के दाग़ हैं तुम जिन को कह रहे हो मिरे क़दमों के निशाँ वो सब तो मेरे पाँव के छालों के दाग़ हैं काजल में घुल के और ज़ियादा निखर गए अश्कों को ये न कहना ख़यालों के दाग़ हैं हल होते होते उस की नतीजे पे आ गए जितने जवाब हैं वो सवालों के दाग़ हैं आते ही मेरे पास जो अक्सर छलक पड़े होंटों पे मेरे ऐसे ही प्यालों के दाग़ हैं ऐसे भी लोग हैं जो सितारों को देख कर कहते मिलें हैं ये तो उजालों के दाग़ हैं जो मुझ में देखते हैं मिरे भी हैं ऐ 'कुँवर' कुछ उन में मुझ को देखने वालों के दाग़ हैं