आँखों में ख़्वाब और रग-ओ-पै में ख़ूँ नहीं लैला-ओ-दश्त है मगर अब वो जुनूँ नहीं ये इज़्तिराब और भी बढ़ता है रूह में अब ख़्वाब में भी मुझ को मयस्सर सुकूँ नहीं तिनका सा बन के रह गए हैं सत्ह-ए-आब पर हम बहना चाहते थे ऐ दरिया प यूँ नहीं ख़ाली पड़ी हुई है मिरी काएनात-ए-दिल ग़म भी कोई बचा हुआ अब के दरूँ नहीं तूफ़ान-ओ-बर्शगाल से गो पुर्ज़ा पुर्ज़ा है कश्ती का बादबान मगर सर निगूँ नहीं आवाज़ मर रही है मगर शहर में 'फ़िगार' कोई मलूल-ए-हर्फ़ की मय्यत पे क्यों नहीं