बहारें कब लबों को खोलती हैं बड़ी हसरत से कलियाँ देखती हैं भले ख़ामोश हैं ये लब तुम्हारे मगर आँखें बहुत कुछ बोलती हैं अमीर-ए-शहर का क़ब्ज़ा है लेकिन ग़रीबों की दीवारें टूटती हैं समुंदर को कहाँ ख़ुश्की का डर है वो नदियाँ हैं जो अक्सर सूखती हैं न जाने कब हटा दें ज़ुल्फ़ अपनी उन्हें इक टक ये आँखें देखती हैं 'रज़ा' है रब का ये एहसान मुझ पर जो ख़ुशियाँ मेरे घर में खेलती हैं