आँखों में तेरी नूर-ए-सहर छोड़ जाऊँगा मैं ज़ुल्मतों में शम्स-ओ-क़मर छोड़ जाऊँगा मुझ को तलाश करती रहे तुझ में काएनात यादों का अपनी ऐसा असर छोड़ जाऊँगा देखेगा तू हर एक को मेरी निगाह से तेरी नज़र में अपनी नज़र छोड़ जाऊँगा मुझ को न कर सकेगा फ़रामोश तू कभी जीने का मैं तो मर के हुनर छोड़ जाऊँगा फूटेगी तीरगी से मोहब्बत की रौशनी दामन में शाम के में सहर छोड़ जाऊँगा मर कर भी तेरे जिस्म में ज़िंदा रहूँगा मैं तेरी रगों में ख़ून-ए-जिगर छोड़ जाऊँगा ख़ूँ में मिरे छुपा है ख़ज़ाना हयात का मैं जाते जाते लाल-ओ-गुहर छोड़ जाऊँगा 'तौक़ीर' मेहमान हूँ मैं अपने जिस्म में जिस घर में रह रहा हूँ वो घर छोड़ जाऊँगा