आँखों में हिज्र चेहरे पे ग़म की शिकन तो है मुझ में सजी हुई मगर इक अंजुमन तो है साँसों को उस की याद से निस्बत है आज भी मुझ में किसी भी तौर सही बाँकपन तो है हर सुब्ह चहचहाती है चिड़िया मुंडेर पर वीरान घर में आस की कोई किरन तो है मुमकिन है उस का वस्ल मयस्सर न हो मुझे लेकिन इस आरज़ू से मिरा घर चमन तो है हर वक़्त महव-ए-रक़्स है चेहरा ख़याल में बे-रब्त ज़िंदगी है मगर दिल मगन तो है हर लम्हा उस से रहता हूँ मसरूफ़-ए-गु्फ़्तुगू कहने को मेरे साथ कोई हम-सुख़न तो है मेरे लिए ये बात ही काफ़ी है ऐ 'रविश' कुछ भी हो मुझ में अब भी मिरा अपना-पन तो है