आँखों ने कभी मेरी ये मंज़र नहीं देखा ग़व्वास ने ऐसा कभी गौहर नहीं देखा हो जातीं शरफ़-याब ये आवारा हवाएँ गलियों से कभी उस की गुज़र कर नहीं देखा आरास्ता है ख़ुद ही अदाओं से सितम-गर फिर क्या है अजब उस पे जो ज़ेवर नहीं देखा था नज्म-शनासी का बड़ा ज़ो'म जो ख़ुद पर उस जैसा फ़लक पर मगर अख़्तर नहीं देखा थी उन की सख़ावत तो समुंदर की तरह से अफ़्सोस कि महरूम ने लंगर नहीं देखा लिक्खा था तलबगार ने इक हर्फ़-ए-मुआ'फ़ी क्या ख़ूब सितम ढाया जो पढ़ कर नहीं देखा यूँ क़ैद हुए उस के कि 'ज़ीशान' न पूछो पल भर के लिए ख़ुद से निकल कर नहीं देखा